बस यूँ ही

बहोत कुछ जो दिल के बहोत करीब रहा,
मुठ्ठी से रेत की तरह बस यूँ ही रिसता रहा,

कदम बढ़ते रहे, कभी तेज़, कभी भारी,
ज़ख्म कभी भरता रहा, कभी रिसता  रहा 

मुड़ के देखा तो बहोत था जिसे सीने से लगाना चाहा,
चाह सुबकती रही, सीना भी रिसता रहा 

कभी ज़िद्द, कभी बचपना, कभी मजबूरी, कभी ताबेदारी,
फ़ैसलों की शाखों से अंजाम-ए-ज़िन्दगी रिसता रहा 

खूबसूरत है मुस्कराहट तेरी, कहके ज़माना हँसाता रहा,
तन्हाई की गहराईयों में ग़म-ए-दिल कहीं रिसता रहा 

काश बाँध तोड़ के बह जाता गुबार, पर नहीं,
रात-ओ-दिन महीन सुराखों से बैरी रिसता रहा 

हर पड़ाव पे मेरी हस्ती का कुछ सामान छुट गया,
सफ़र के दौरान मेरा वजूद कहीं-कहीं रिसता  रहा  

लिए दिल को हाथों में चलते रहे हम भी, 
उँगलियों के बीच दरारों से लहू भले ही रिसता रहा 

बेशक, वो कादिर रहा है मददगार हर कदम पे, 
थामे रहा वो हाथ मेरा, हौसला जब भी रिसता  रहा 


टिप्पणियाँ

कभी ज़िद्द, कभी बचपना, कभी मजबूरी, कभी ताबेदारी,
फ़ैसलों की शाखों से अंजाम-ए-ज़िन्दगी रिसता रहा

बहुत खूबसूरत गज़ल... बे-इंतिहान दर्द को कहती हुई ...
Shalini kaushik ने कहा…
.सार्थक भावपूर्ण अभिव्यक्ति बधाई भारत पाक एकीकरण -नहीं कभी नहीं
घूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच
। लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज सोमवार के चर्चा मंच पर भी है!
सूचनार्थ!
वाणी गीत ने कहा…
दर्द में जो थामे हाथ चलता रहा ...
दर्द भी मुट्ठियों से फिसलता रहा !
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल !
संचित जग का प्यार हृदय में..
अति सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति...
काश बाँध तोड़ के बह जाता गुबार, पर नहीं,
रात-ओ-दिन महीन सुराखों से बैरी रिसता रहा.

खूबसूरत अशआर. सुंदर गज़ल.



हर पड़ाव पे मेरी हस्ती का कुछ सामान छुट गया,
सफ़र के दौरान मेरा वजूद कहीं-कहीं रिसता रहा

वाह वाऽह ! क्या बात है !
बहुत खूबसूरत !

अंजना जी
अच्छे काव्य-प्रयास के लिए बधाई !

लिखती रहें … और श्रेष्ठ लिखती रहें …

नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार

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