उसके क़दमों में सर मेरा, मेरा गुरुर है


चाहे ज़रा मैली भी हो,
मुझे मेरी सच्चाई ही मंज़ूर है

कहाँ तक साथ देगा धुंआ?
एक दिन तस्वीर साफ़ होती ज़रूर है

यूँ तो खुद्दार हूँ, सर उठा के चलने की आदत है,
उसके क़दमों में सर मेरा, मेरा गुरुर है

मज़हब तो समझता है, गर हमदर्दी भी समझ जाए,
तो पिघल जाए वो रहनुमा जो अभी मगरूर है


तहज़ीब-ओ-अदब जानता है सारे, माना
इंसान को गले लगाने का क्या तुझे शहूर है?


बैठ कुछ देर गरीब की कुटिया में और ढूंढ उसकी आँखों में,
पा लेगा उस खुदा को जो तेरे महल से ज़रा दूर है


टिप्पणियाँ

Bharat Bhushan ने कहा…
तहज़ीब-ओ-अदब जानता है सारे, माना
इंसान को गले लगाने का क्या तुझे शऊर है?

बहुत खूब कहा है गुड़िया.
ANULATA RAJ NAIR ने कहा…
वाह..

बहुत सुन्दर........
अनु
Rakesh Kumar ने कहा…
आपके निराले अंदाजे बयां पर दिल कुर्बां मेरा
मेरी उर्दू कमजोर है.
क्या मैंने ठीक लिखा अंजना जी ?
यूँ तो खुद्दार हूँ, सर उठा के चलने की आदत है,
उसके क़दमों में सर मेरा, मेरा गुरुर है... bahut badhiya
M VERMA ने कहा…
यूँ तो खुद्दार हूँ, सर उठा के चलने की आदत है,
उसके क़दमों में सर मेरा, मेरा गुरुर है
बहुत खूब
सदा ने कहा…
तहज़ीब-ओ-अदब जानता है सारे, माना
इंसान को गले लगाने का क्या तुझे शऊर है?
बहुत खूब।
.......इस उत्कृष्ट रचना के लिए ... बधाई स्वीकारें
आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ. अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)
S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…
बहुत बढ़िया रचना...
Rakesh Kumar ने कहा…
इस ज़मीं के मज़लूमों को करेगा बुलंद अगर,
मिल जाएगी बहशत में जो वो हूर है

इसका मतलब समझाईयेगा अंजना जी.

बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आभार.

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